आर्य! उठ फिर भाग्य की उगती उषा के रंग हैं
एक कौतुक है कि जिस से देव दानव दंग हैं II
शीश पर तेरे सजाने को सुनहरा ताज है
हो रहे अभिषेक के तेरे सजीले साज हैं II
दिग्विजय का गीत गाने को दिशाएं हैं अधीर
कीर्ति का कालख उड़ाने को हवाएं हैं अधीर II
सभ्यता डायन बनी है, राज्य है रावण बना
क्रूर कौतुक है कि कृष्णा-कान्त दुशासन बना II
क्लीव क्यों अर्जुन! खड़ा है? घोर रणचंडी जगा
शत्रु दल के दिल हिलें, टंकार कर गांडीव का II
क्रूरता पर कंस की फिर कृष्ण बन कर वार कर
शीश रावण का उड़ा, बेड़ा सिया का पार कर II
आज क्यों लंका अधिक प्यारी सिया से है तुझे?
देखता क्या है? पवन सुत! पाप का गढ़ फूँक दे II
राम बनना है तुझे, घर से निकल वनवास ले
ले! अभी लंका विजय होती तुझे है रास ले II
है डरा जाता वृथा क्यों? सिंह के सर पर दहाड़
बाघ की मूछें पकड़, दुष्यंत सुत! हिंसक पछाड़ II
गर्ज से तेरी हृदय संसार के जाएँ दहल
प्रेम की तानें उड़ा, पाषाण तक जाएँ पिघल II
गर्ज से गंभीर सागर की उमड़ती ठाठ हो
प्रेम का फिर से झकोरों में पवन के पाठ हो II
– पंडित चमूपति
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bahut achha bhai
RT @agniveer: आर्यों को सन्देश http://bit.ly/9xqVQG
Namaste
How does Agniveer review Amish Tripathi’s Shiva Trilogy and Raama series, given that books have an extremely rational outlook towards life topics, portrays honour and justice as way of life, but at the same supports history of meat eating by our role models?
Thanks for the poem. It’s very inspiring.