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वेदों की उत्पत्ति

इस लेख में हम वेदों की उत्पत्ति के बारे में जानेंगे | वेदों पर आधारित लेखों की यह श्रृंखला ऋषि दयानंद की ‘ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ‘ में अपनाई गई शैली से प्रेरित है | पाठकों से निवेदन है कि वे विस्तृत जानकारी के लिये इस पुस्तक का अध्ययन करें | इस श्रृंखला में हम वेदों की उत्पत्ति, उनकी व्याख्याएँ, विषयवस्तु, वैदिक सिद्धांत इत्यादि के बारे में जानेंगे | यह श्रृंखला हमारे विद्वानों के आदि सृष्टि से लेकर आज तक के किए गए कामों पर आधारित है जिसके पूर्ण विश्लेषण के बाद ही निष्कर्ष निकाला जाना अपेक्षित है |

इस श्रृंखला के बारे में यह कहा जा सकता है कि इसका ध्यान से स्वाध्याय करने पर पाठक कभी निराशा या अवसाद में नहीं घिरेंगे बल्कि अपने जीवन को अधिक सुखी और सार्थक बना सकेंगे तथा सत्य और धर्म की रक्षा में अपना योगदान भी दे सकेंगे |

नोट – यह लेख पाठक के आस्तिक होने की अपेक्षा करता है | इस के पहले लेखों में नास्तिकवाद नकारा जा चुका है, जिसका खंडन हम आगे भी करेंगे |

यजुर्वेद ३१.७ – उस ईश्वर से, जो सर्वत्र व्यापक है – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद उत्पन्न हुए हैं |

अथर्ववेद १०.७.२० में वेदों की उत्पत्ति का अलंकारिक वर्णन आता है – ऋच:, यजु:, साम: और अथर्व, यह चारों सर्वशक्तिमान परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं | पूछा है कि कौन से देव ( आनंद और ज्ञान देने वाला) ने वेद दिए हैं? और उत्तर है कि जो सारे जगत का संचालक परमेश्वर है वही वेदों को बनानेवाला है | अथर्ववेद उस परमेश्वर के मुख के समान है, सामवेद त्वचा के लोमों के समान, यजुर्वेद ह्रदय और ऋग्वेद प्राण के समान है |

शतपथ ब्राह्मण १४.५.४.१० के अनुसार – जो आकाश से भी बड़ा सर्वव्यापक ईश्वर है, उस से ही चारों वेद उत्पन्न हुए हैं | जैसे मनुष्य के शरीर से श्वास बाहर आकर फ़िर भीतर जाता है, इसी प्रकार सृष्टि के प्रारंभ में ईश्वर वेदों को उत्पन्न कर के संसार में प्रकाश करता है और प्रलय में संसार में वेद नहीं रहते परंतु जैसे बीज में अंकुर पहले ही रहता है, इसी प्रकार से वेद भी ईश्वर के ज्ञान में बिना किसी परिवर्तन के सदा बने रहते हैं, उनका नाश कभी नहीं होता |

शंकराचार्य अपने गीता भाष्य ३.१५ में कहते हैं – वस्तुतः वेद कभी निर्मित या नष्ट नहीं होते, हमेशा उसका अविर्भाव( प्रकट) और तिरोभाव ( लुप्त ) होता रहता है किन्तु वे हमेशा ईश्वर में ही रहते हैं |

ऋग्वेद १०.१९०.३ के अनुसार सभी कल्पों में सृष्टि एक समान ही बनती है, अत: प्रत्येक सृष्टि में वेदों का ज्ञान भी समान होता है |

शंका- जब ईश्वर निराकार है तो उसने वेदों को कैसे रचा ?

– ईश्वर को अपने काम करने के लिए मनुष्यों की तरह बाह्य साधनों या इन्द्रियों आदि अवयवों की जरुरत नहीं है | ईश्वर के लिए ऐसे बंधन नहीं हैं | वेद उसे असंख्य अंगों और मुखों वाला बताते हैं जिसका अर्थ है की ईश्वर अपने कार्य बिना किसी भौतिक साधन के इस्तेमाल के और बिना किसी की सहायता लिए कर सकता है | जब ईश्वर यह सम्पूर्ण जगत बना सकता है तो वेदों को क्यों नहीं रच सकता ? श्वेताश्वतर उपनिषद ३.१९ कहता है की वह हाथ- पावं वाला नहीं है फ़िर भी वह शीघ्र गामी और पकड़ लेने वाला है | वह आँखों के बिना ही देखता है | वह जानने योग्य को जानता है परंतु उसको जानने वाला नहीं है | उस सब के अग्रणी को ही महान परम पुरुष कहते हैं |

शंका : कोई भी जीव जगत को नहीं बना सकता लेकिन व्याकरण और अन्य विद्याओं के ग्रंथ तो बना ही सकता है, फ़िर वेद बनाने के लिए ईश्वर ही क्यों ?

– मनुष्य का ज्ञान, ईश्वर के दिए ज्ञान पर ही आश्रित है | नए ज्ञान के अविष्कार के लिए हमेशा उपलब्ध ज्ञान के उपयोग और अच्छी शिक्षा की आवश्यकता रहती है | यदि किसी मनुष्य को जन्म से ही अलग रखा जाए तो उसमें मनुष्यों के व्यवहार का सर्वथा अभाव ही होगा | आज भी कई जंगली समुदाय शिक्षा के अभाव में जानवरों की तरह ही अपना जीवन बिताते नजर आते हैं | अत: मनुष्यों को भी नए ज्ञान के अविष्कार के लिए और ग्रंथ इत्यादि रचने का सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए सृष्टि के प्रारंभ में ज्ञान की आवश्यकता रहती है |

शंका : ईश्वर ने सभी मनुष्यों को कुछ नैसर्गिक वृत्ति और सहज ज्ञान दिया है | यह सभी पुस्तकों से बेहतर है क्योंकि इसी से हम सब कुछ समझ सकते हैं, इस ज्ञान के विकास के साथ कुछ लोगों ने वेदों की रचना करना सीख लिया हो, ऐसा हो सकता है | वेद, ईश्वर से ही अवतरित हुए हैं, ऐसा मानना क्यों आवश्यक है ?

– १.क्या जंगली जनजातियों और शिक्षा के अभाव में अकेले जंगल में पले बच्चे के पास उनका सहज ज्ञान नहीं था ? फ़िर भी वो विद्वान या समझदार क्यों न हुए ?
२.भाषा भी वेदों से ही मिली है लेकिन वेदों पर विश्वास के अभाव में भाषा की उत्पत्ति भी आधुनिक और शंकाशील वैज्ञानिकों के लिए एक रहस्य रह जाता है |
३.हम शाला में जा कर और हम से बड़ों से पाठ पढ़ कर भी सीखते रहते हैं तो फ़िर शुरू के समय में लोग इतना सब कैसे सीख सकते हैं कि उन वेदों को बना सकें – जिस में बहुत सारे मंत्र हों और वो भी उस भाषा में जो अन्य किसी भी भाषा से परिपूर्ण और विस्तृत है और जिस में विविध और महत्वपूर्ण विषयों पर गहन विचार हों और जो बाद के समय के किसी भी ग्रंथ से हमेशा श्रेष्ट ही रहे तथा जिसे पाठ और मात्रा से काफ़ी सुरक्षित रखा गया हो ताकि उस में एक भी अक्षर इधर से उधर न हो सके |
४.जो आधारभूत ज्ञान माना जाता है वह ज्यादा जटिल ज्ञान को सीखने में हमारा मददगार होता है लेकिन अभाव से भी नए ज्ञान का अविष्कार करने के लिए वह पर्याप्त नहीं है | जिस प्रकार आंख देखने का सामर्थ्य तभी रखती है जब मन से उसका संपर्क होता है और मन भी तभी कार्य करता है जब आत्मा से जुड़ता है, इसी तरह मूलभूत ज्ञान और स्वाभाविक वृत्ति हमें ज्ञान के उच्चतर स्रोतों तक पहुँचाने में मदद करते हैं न कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष अर्थात् हमारे कर्तव्य, उद्देश्य, अपेक्षाएं और मुक्ति आदि के बारे में अवगत कराते हैं |
५.यही कारण है कि प्रारंभ में ईश्वर प्रदत्त ज्ञान अत्यंत आवश्यक बन जाता है | उस के बिना विकास और ज्ञान की प्रक्रिया आरम्भ नहीं होती |
६.योगदर्शन १.२६ कहता है – काल के द्वारा बाधित न होने के कारण से ईश्वर पूर्व में उत्पन्न गुरुओं का भी गुरु है | कुमारिल भट्ट मीमांसा दर्शन के अपने भाष्य में लिखते हैं कि वेद अपौरुषेय अर्थात् मनुष्य कृत नहीं हैं क्योंकि उसके रचयिता को कोई नहीं जानता | सांख्य दर्शन ५.६ भी यही कहता है तथा सायण का भी यही मत है |

शंका: वेदों को बनाने में ईश्वर का क्या प्रयोजन है ?

– १.पहले यह बताइए कि नहीं बनाने में क्या प्रयोजन है ? ईश्वर में असीम और दिव्य ज्ञान है और वह ज्ञान प्रगति और विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है | इसलिए, यदि ईश्वर हमें अपने ज्ञान का प्रकाश कर के उपकृत नहीं करता तब तक दिव्य ज्ञान ऐसे ही रहेगा | हमें अपने ज्ञान से प्रकाशित कर के और वेदों के ज्ञान से अवगत कराकर ही ईश्वर हमें अपने गुणों का परिचय देता है |
२.ईश्वर हमारे माता-पिता के समान है और जैसे माता-पिता अपनी संतानों से प्रेम करते हैं और हमेशा सुखी करना चाहते हैं वैसे ही ईश्वर हमारे लिए करता है | इसलिए ईश्वर ने हमें हमारे सुखों में वृद्धि करने के लिए ही वेद का ज्ञान दिया है यदि ईश्वर हमें यह ज्ञान नहीं देता तो सृष्टि उत्पत्ति का उद्देश्य ही कुछ नहीं था | ईश्वर अगर इस ज्ञान का उपदेश नहीं करता तो हम सांसारिक पदार्थों का यथावत उपयोग भी नहीं कर पाते और न ही मनुष्य जीवन के मूल उद्देश्य परमानन्द को प्राप्त कर सकते थे |
३.संसार की सभी वस्तुओं में ज्ञान ही सबसे अधिक कृपा और सुख़ के समान है और जब परमात्मा ने सृष्टि रचना से हमें उपकृत किया है तब वेदों को अपने पास सीमित क्यों रखेगा ? और ऐसा कर के सृष्टि की रचना के उसके उद्देश्य को ही निरस्त क्यों करेगा ? इस प्रकार मनुष्यों पर कृपा करने के मूल उद्देश्य को व्यर्थ क्यों करेगा ? डब्लू . डी ब्राउन अपनी पुस्तक ‘ सुपीरियोरिटी ऑफ वैदिक रिलीजन’ में लिखते हैं कि “बाइबिल, कुरान और पुराण के विपरीत वैदिक ज्ञान ऐसा है जहां विज्ञान और अध्यात्म दोनों मिलते हैं | यह ज्ञान ही वैदिक धर्म की विशेषता है जो विज्ञान और दर्शन पर आधारित है | ” ‘ द बाइबिल इन इंडिया ‘ में जकोलिएट लिखते हैं कि ” जितने भी इलहाम हुए हैं उन में वेद और उसकी शिक्षाएं ही आधुनिक विज्ञान से सामंजस्य रखते हैं |” बहुत सारे दूसरे वैज्ञानिक भी जिन्होनें वेदों पर काम किया है यही राय रखते हैं |

शंका: सृष्टि के आदि में वेदों को लिखने के लिए ईश्वर ने कलम, स्याही और कागज कहां से प्राप्त किए ?

– यह बहुत ही नासमझी भरा सवाल है | जैसा हम पहले ही बता चुके हैं, जब ईश्वर सारे जगत को ही बिना किसी अतिरिक्त बाह्य साधन के बना सकता है, तो वेदों की रचना में क्या संदेह है ? और ईश्वर ने वेद पुस्तक रूप में लिख कर सृष्टि के आदि में प्रकाशित नहीं किए, ईश्वर ने सृष्टि के आदि में महान ऋषियों – अग्नि,वायु,आदित्य और अंगीरा के मन में वेदों का प्रकाश किया | शतपथ ब्राह्मण ११.५.२.३ कहता है कि जैसे एक खिलौना कहीं से गति प्राप्त कर के चेष्टा करता है उसी प्रकार ऋषियों ने ध्यानावस्था में अपने अंतर्मन में वेदों का ज्ञान प्राप्त कर आगे वेदों का उपदेश किया | मनुष्य मात्र को उपदेश देने के लिये ईश्वर ने उनको निमित्त बनाया |

शंका: अग्नि, वायु, आदित्य तो जड़ पदार्थों – आग, हवा और सूर्य के नाम लगते हैं ?

– ऐसा कहना आधारहीन है, जड़ पदार्थों द्वारा कभी ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता | अगर, यह कहा जाए कि न्यायालय ने समन जारी किया है तो क्या इस से यह मतलब निकालें कि न्यायालय की ईमारत ने समन जारी किया है | इस का मतलब है कि न्यायालय में काम करने वाले व्यक्तियों ने समन जारी किया है | इसी तरह, ज्ञान भी सिर्फ़ मनुष्यों द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है |

शंका: शायद ईश्वर ने उन्हें ज्ञान प्रदान किया हो और उन्होंने अपने ज्ञान से वेदों को बनाया होगा ?

– यह भी एक निराधार शंका ही है | जब ज्ञान का स्रोत ईश्वर ही है तो ऋषियों द्वारा रचित वेदों का स्रोत भी ईश्वर ही हुआ | जब ऋषियों को ईश्वर विशुद्ध ज्ञान प्राप्त था तो वे उस में अपनी मिलावट क्यों करते ?

शंका: ईश्वर यदि न्यायकारी है तो उस ने वेदों को सभी के मन में प्रकाशित क्यों नहीं किया ? सिर्फ़ चार को ही क्यों चुना ? इस से तो ईश्वर पक्षपाती लगता है ?
– ईश्वर द्वारा वेदों के प्रकाश के लिए केवल चार ऋषियों को ही चुनना, उसे न्यायकारी सिद्ध करता है क्योंकि न्याय अर्थात् कर्मों के अनुसार फल देना | अत: ईश्वर ने उन सब में जो अपने पूर्व कर्मों के कारण सबसे अधिक गुणसम्पन्न थे उन्हें ही वेदों के ज्ञान और उसके प्रसार के लिए चुना | ऋग्वेद १०.७१.१ कहता है – भले ही सभी मनुष्यों के आँख और कान समान हों परंतु प्रज्ञा बुद्धि में सभी समान नहीं होते हैं |

शंका: जब हम सृष्टि के प्रारंभ की बात कर रहे हैं तब पूर्व कर्म कहां से आए ?

– उत्पत्ति और प्रलय निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है जिसका न कोई आदि है और न अंत | जीव उनके पूर्व सृष्टि में किए गए कर्मों के अनुसार जन्म लेते हैं इस तरह पूर्व कर्म पूर्णतः शून्य कभी नहीं होते |

शंका: ईश्वर स्त्री विरोधी क्यों है? आदि सृष्टि में वेदों के प्रसार के लिए उसने स्त्रियों को क्यों नहीं चुना?

– आत्मा का कोई लिंग नहीं होता | ईश्वर ने ऋषियों को पुरुष का शरीर दिया क्योंकि बाकी पूरी मनुष्य जाति को वेदों का ज्ञान देने के लिए यही सबसे उपयुक्त था | उस समय में पुरुष ही अन्य ऐसे मनुष्यों को जो सिर्फ़ सहज ज्ञान ही रखते थे, नियंत्रित और शिक्षित कर सकते थे | परंतु, बाद में अनेक स्त्रियां भी ऋषिकाएं हुई हैं जिन्होंने इन वैदिक मंत्रों के नए अर्थ खोजे |

शंका: क्या गायत्री जैसे छंद भी ईश्वर ने रचे हैं ?

– जब ईश्वर अनंत सामर्थ्यवाला है, तो इस में शंका क्यों ?

शंका: इतिहास में सुनते हैं कि ब्रह्मा ने अपने चार मुखों से वेदों की रचना की और बाद में वेद व्यास ने उन्हें लिखित रूप में संकलित करके चार भागों में विभाजित किया |
– यह एक आधारहीन सिद्धांत है जो किसी भी प्रामाणिक ग्रंथ में नहीं मिलता | इस सिद्धांत को पुराण में प्रचलित किया गया है जो समय की दृष्टी से बहुत बाद के हैं और इतना ही नहीं अनेक विसंगतियों से भी दूषित हैं | कुछ लोग पुराणों को बिलकुल सही और ईश्वर निर्मित मानते हैं पर यह मान्यता ऐसी ही है, जैसे कुरान और बाइबल भी अपने आप को खुदाई बताते हैं |
दरअसल ब्रह्मा ने चारों वेदों को ऋषियों से पढ़ा था और ब्रह्मा – एक सिर, दो पैर, दो हाथ वाला एक साधारण मनुष्य था वैसा नहीं जैसा कि भ्रामक पुराणों में चित्रित किया गया है | वेद व्यास योग दर्शन के व्याख्याकार और महाभारत के रचयिता थे | वेद व्यास को चारों वेदों का लेखक मानने का सिद्धांत पुराणों की ही देन है | और यदि पुराणों पर भरोसा किया जाए तो हमें ईसा,मुहम्मद,विक्टोरिया इत्यादि की अन्य भी झूठी कहानियों को मानना होगा साथ ही स्त्रियों की निंदा, श्रीराम, श्रीकृष्ण जैसे महापुरुषों का अपमान और अन्य मूर्खताओं को भी मानना होगा जिसके लिए हम बाइबिल और कुरान को भी कोसते हैं | और यदि देखा जाए तो पुराण की अधिकारिकता पर ऐसा कोई परीक्षण नहीं है जिस से उसकी विश्वसनीयता के बारे में कहीं से भी कोई शंका न उठाई जा सके | ऐसे सर्वत: विश्वसनीय परीक्षण के ऊपर केवल वेद ही खरे उतरे हैं |
यदि वेद शुरू में सच में एक ही थे और वेद व्यास द्वारा चार भागों में बांटे गए होते तो वेद व्यास से पहले रचित किसी भी ग्रंथ में वेद शब्द का बहुवचन में प्रयोग नहीं मिलना चाहिए था और न ही चारों वेदों के नाम मिलने चाहिए थे | किन्तु इन सन्दर्भों में वेद का बहुवचन प्रयोग या एक से ज्यादा वेदों के नाम मिलते हैं – अथर्व ४ .३६ .६ , अथर्व १९ .९ .१२ , ऋग् १० .९० .९ , यजुर् ३१ .७ , अथर्व १६ .६ .१३ , यजुर् ३४ .५ , अथर्व १० .७ .२० , यजुर् १८ .२९ , यजुर् ३६ .१ , यजुर् १२ .४ , शतपथ ६ .७ .२ .६ , तैत्तरीय संहिता ४ .१ .१० .५ , मैत्रायणी संहिता १६ .८ , शांखायन गृह्य सूत्र १ .२२ .१५ , यजुर् १० .६७ , अथर्व ११ .७ .१४ , अथर्व १५ .६ .७ -८ , अथर्व १२ .१ .३८ , अथर्व ११ .७ .२४ , ऋग् ४ .५८ .३ , यजुर् १७ .६१ , गोपथ ब्रह्मण १ .१३ , शतपथ १४ .५ .४ .१०, बृहद उपनिषद् ३ .४ .१०, ऐतरेय ब्रह्मण २५ .७ , गोपथ ३ .१ इत्यादि |

उपनिषदों,मनुस्मृति, महाभारत, सर्वनुक्रमाणी, रामायण.और अन्य भी बहुत से ग्रंथों में भी ऐसे संदर्भ पाए जाते हैं | महाभारत को बहुत सारे पंडितों ने पंचम वेद माना है यही बता रहा है कि वेद चार थे और साथ ही आयुर्वेद, धनुर्वेद, गांधर्ववेद और अर्थववेद – यह सब भी वेदों के चार होने को सूचित करते हैं |

शंका: क्या वेद संहिताओं में सूक्तों के आगे लिखे ऋषि ही उन सूक्तों के रचियेता हैं ?
– बहुत सारे सूक्तों पर उनके द्रष्टा ऋषियों का नाम पाया जाता है, जिन्होंने उन मंत्रों का या सूक्तों का दर्शन किया हो या उन पर कार्य किया हो | जैसा कि मनुस्मृति का भी प्रमाण है कि ब्रह्मा ने सब से पहले चार ऋषियों से वेदों को पढ़ा और ब्रह्मा का समय व्यास, मधुच्छन्दा आदि ऋषियों से बहुत पहले का है| अत:वेद इन ऋषियों के बहुत पहले से ही विद्यमान थे | हम इसे विस्तार से अगले लेखों में देखेंगे|

शंका:ईश्वर के ज्ञान को दो नामों से क्यों पुकारा गया – वेद और श्रुति ?
– वेद शब्द ‘विद्’ धातु से बना है जिसका अर्थ है – ज्ञान जैसे विद्या या उपस्थित जैसे विद्यमान या लाभ या विचार |श्रुति शब्द बना है ‘ श्रु’ धातु से जिसका अर्थ है सुनना | क्योंकि वेदों को पढ़ कर हम यथार्थ ज्ञान प्राप्त करते हैं, विद्वत्ता प्राप्त करे हैं, सब सुखों का लाभ प्राप्त करते हैं और सत्य- असत्य का ठीक निर्णय कर सकते हैं इसलिए उसे वेद कहते हैं | और क्योंकि सृष्टि के आरम्भ से ही हम इसे सुनते आए हैं और किसी ने भी वेदों के बनानेवाले को नहीं देखा ( क्योंकि वह निराकार है) इसलिए उसे श्रुति कहा गया है |

शंका: वेद कितने पुराने हैं ?
– सूर्य सिद्धांत आदि ग्रंथों के वर्णन और भारतीय परम्परा के अनुसार वेदों का अनुमानित समय १.९७ अरब वर्ष है |विद्वानों में विवाद है कि यह समय सृष्टि का है या मनुष्यजाति की उत्पत्ति का -यह अपने आप में एक अनुसन्धान का विषय है | लेकिन भारत में जब भी यज्ञ का अनुष्ठान होता है, तब यज्ञ से पहले संकल्प पाठ में आदि सृष्टि से चले आ रहे आज तक के समय को मन्वंतर, युग और वर्ष आदि में बोला जाता है और समय की यह गणना पूरे भारत में समान है |

शंका: विल्सन और मैक्स मूलर जो वेदों को मात्र २०००-३००० वर्ष पुराना बताते हैं आप उनके बारे में क्या कहेंगे ?
– वे लोग भारतीय संकृति और संस्कृत के ज्ञान से सर्वथा अनभिज्ञ और धूर्त ईसाई मिशनरी थे जिनका उद्देश्य ही भारतीय संस्कृति का नाश करना था | वह अपनी उन योजनाओं में और कार्य- कलापों में जिस के लिए उनको ब्रिटिशों द्वारा धन दिया जाता था, बहुत हद तक सफ़ल रहे | परंतु उनकी ऐसी अनर्गल प्रस्थापनाओं का वास्तव में कोई आधार है ही नहीं, न ही उनके दावों का कोई वाजिब और तार्किक आधार है | किन्तु क्योंकि वह लोग भारतीय संकृति को नीचा दिखाने और बदनाम करने पर तुले हुए थे इसलिए उनको हमेशा साम्यवादियों और मिशनरीयों का साथ मिल पाया | वेद आदि सृष्टि में उत्पन्न हुए हैं और सृष्टि के अंत अब से २.३३ अरब वर्ष तक रहेंगे |

This translation in Hindi is contributed by sister Mridula. For original post, visit Origin of Vedas.

Agniveer
Agniveer
Vedic Dharma, honest history, genuine human rights, impactful life hacks, honest social change, fight against terror, and sincere humanism.

8 COMMENTS

  1. You are true that Maxmooler was missionary and getting wages from Britishers. He had started to twist our all scriptures by translating them into their languages. But while he was doing this, he started to be melted from inner side himself & realized that these are the truest and awesome Granths of not only Hinduism but also for whole mankind.
    He had given the lectures in one British university to new ICS officers coming to India to rule over, These lecture’s collection is published as a book names ‘India – What can it teach us?’. In this book he has narrated India as the cultural millionaire, The motherland of all civilizations, The motherland of all languages and the cradle of the human race. Then Maxmooler became a real Indian.

    • Max Muller is no religious authority. Classical Sanskrit comes from Panini born in 4 BC. Panini, was a Vyākaraṇin from the early mahajanapada era of ancient India. He was born in Pushkalavati, Gandhara (on the outskirts of modern-day Charsadda, Khyber Pakhtunkhwa, Pakistan).

      Rim-sin born in Agade, Mesopotamia spoke Aggadic/Akkadian language and Sanskrit was not born in his time. Rim-sin alias Rama-Chandra (Sin means Moon in aggadic language).
      Cont’d/-….

    • Rim-Sin I ruled the ancient Near East city-state of Larsa (Lar is ancient name of Gujarat) from 1758 BC to 1699 BC (in short chronology) or 1822 BC to 1763 BC (middle chronology). His sister En-ane-du (Sita) was high priestess of the moon god in Ur. Rim-Sin I was a contemporary of Hammurabi alias Ravi-anna (Ravana) of Babylon and Irdanene of Uruk. Rim Sin’s younger brother was Warad-sin (Bharat) & their father was Tussrat (Dasrath, owner of 10 fold chariots). Ruled 60 years, Dasrath Jataka.

  2. Vedic religions come from the mysterious religions of King Nimrod of Babylon, the founder of idolatry and phallus/lingum worship. Most Vedic gods are sex glorifying and flirts. 200 of the Watchers (fallen angels) came down on earth in Jared’s time and took to themselves women. There children were born giants. These fallen angels taught mankind all kinds of arts and the knowledge of movement of stars, sun and moon, beautification, mining, herbs, etc. God destroyed all of polluted life.

  3. Noah’s grandson Arphaxsad took Rasu’eja, granddaughter of Shem as wife.

    Jubilee Year=49 yrs
    Jubilee Week= 7 yrs
    Year 1375 A.M.=Anno Mundi, Year from Creation

    Book of Jubilees 8:3-4 And he [Kainam] found a writing which former (generations) had carved on the rock, and he read what was thereon, and he transcribed it and sinned owing to it; for it contained the teaching of the Watchers in accordance with which they used to observe the omens of the sun and moon and stars in all .

  4. First veda, rig veda was written sometime between 1500-1200BC by unknown authors. Present day India started urbanizing gradually from Chandragupta I’s time. Until then parts of NW India were inhibited by humans. Rest is the regular evil taught by Sumerian lugals/Brahmins.

    What Kainam wrote is the main part and vedas don’t have even 5% of what Kainam transcribed from the teachings of the fallen angels.

    Vedars are not even researched, proved and authenticated as the supreme evil.

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