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वेदों का धर्म 

इस लेख में हम वैदिक धर्म के मूल तत्वों को जानेंगे, जो कि सम्पूर्ण मानवजाति के लिए एकमात्र धर्म है |  कृपया ध्यान दें कि वेद उस समय के हैं जब इस पृथ्वी पर एक ही पंथ, जाति और धर्म था  –  मनुष्यता | वैसे तो वेद बहुत विविध और गहन विषयों को समाहित करते हैं जो मनुष्य जीवन को उच्चतम सोपान तक लेकर जाने के लिए अति आवश्यक हैं लेकिन हम यहां यह देखेंगे कि वेदों का अनुसरण करने या मानने का क्या अर्थ है ? आपकी अपनी विचारधारा, समझ या ज्ञान कुछ भी हो पर अगर आप यहां बताये तत्वों का अनुसरण करते हैं तो आप वैदिक विचारधारा का अनुसरण करने वाले कहे जायेंगे | भले ही कोई किसी भी विधि-विधान या किसी परम्परा या किसी भी प्रचलित रीति-नीति को मानता हो, पर इन तत्वों को मानने और पालन करने वाला हो तो वेदों का अनुयायी ही कहा जाएगा |

और यही वह धर्म है – अग्निवीर जिसका समर्थक है, सत्य और आनंद प्राप्ति का यही अकेला रास्ता है |  

बहुत से दूसरे पंथ और सम्प्रदायों में भी इन्हीं में से कई बातें मिलेंगी क्योंकि हर अच्छाई का मूल स्रोत तो वेद ही हैं | इसलिए अन्य मतों में भी जो कुछ अच्छा है वह वेदों से ही आया है | अत: कोई अच्छे कामों को अपनाता है तो वह वैदिक धर्मी है | और इसीलिए हमें अपने जीवन में से अनावश्यक बातें जो अवैदिक हैं उन्हें हटाना चाहिए |

आइए, संक्षेप में वैदिक धर्म के तत्वों को देखें –

ऋग्वेद का अंतिम सूक्त ( १०.१९१ )  मनुष्यों को वेदों की शिक्षाओं को आत्मसात करने के लिए क्या करना चाहिए यह बताता है | यह सूक्त मनुष्य जीवन के विविध आयामों की – उद्देश्यों में, अभिगमों में और अपनाये हुए विधि – विधानों में एक सूत्रता उजागर करता है |

ऋग्वेद  १०.१९१.२

तुम सब अन्याय और पक्षपात के बिना सहनशीलता के साथ सत्य के मार्ग पर चलो | विद्या, ज्ञान और स्नेह को बढ़ाने के लिए घृणा और विद्वेष से रहित आपस में संवाद करो | ज्ञान और आनंद को बढ़ाने के लिए साथ मिलकर काम करो | जैसे श्रेष्ठ लोग सत्य और पक्षपात रहित आचरण करते हैं वैसे ही तुम लोग करो |

ऋग्वेद १०.१९१.३

तुम्हारा सत्य और असत्य का विवेचन पक्षपात रहित हो, किसी एक ही समुदाय के लिए न हो |  तुम संगठित होकर स्वास्थ्य, विद्या और समृद्धि को बढ़ाने में सभी क़ी मदद करो | तुम्हारे मन विरोध रहित हों और सभी की प्रसन्नता और उन्नति में तुम अपनी स्वयं की प्रसन्नता और उन्नति समझो | सच्चे सुख़ की बढती के लिए तुम  पुरुषार्थ करो | तुम सब मिलकर सत्य की खोज करो और असत्य को मिटाओ |

ऋग्वेद १०.१९१.४

तुम्हारा उत्साह से पूर्ण पुरुषार्थ सभी के सुख़ के लिए हो | तुम्हारे मन अर्थात् सभी भावनाएं प्रेम सहित और विरोध रहित हों | सभी से वैसा ही प्रेम करो जैसा कि तुम अपने आप से करते हो | तुम्हारी इच्छाएं, संकल्प, विश्लेषण, श्रद्धा, संयम, धर्म, जिज्ञासा, ध्यान और अनुकूलता आदि सब केवल सत्य और सभी के कल्याण के लिए हो तथा असत्य से परे हो | सुख़ और विद्या की बढ़ोतरी के लिए तुम सब मिलकर काम करो |

यजुर्वेद १९.७७

हे मनुष्यों !  तुम सदा ही जो कुछ भी असत्य पाओ उस में श्रद्धा मत रखो और जो कुछ विश्लेषण, तर्क, तथ्य और प्रमाण आदि से सत्य जानो, उसे श्रद्धा पूर्वक अपनाओ | 

यजुर्वेद  ३६.१८

मनुष्य कभी किसी प्राणी से वैर भाव न रखे और एक- दूसरे के साथ प्रेमभाव से रहे | मनुष्य सभी प्राणियों को अपना मित्र समझे और प्रत्येक की सुख़ -समृद्धि के लिए कार्य करे |

यजुर्वेद  १.५

सभी मनुष्यों को दृढ़ता से सिर्फ़ सत्य का स्वीकार और असत्य का त्याग करना चाहिए | ईश्वर से प्रार्थना में भी सत्य को अपनाने की और असत्य को छुड़ाने की प्रार्थना करनी चाहिए | 

यजुर्वेद १९.३०

मनुष्य जब सत्य का पालन दृढ़ता से करता है, तब वह सत्य और सुख़ का अधिकारी बनता है | इन उत्तम गुणों से युक्त होने के बाद उसे ज्ञान और संतोष प्राप्त होते हैं |  जिससे सत्य के पालन में उसका विश्वास और दृढ़ हो जाता है और उसकी श्रद्धा बढती जाती है | जितनी अधिक श्रद्धा बढती जाती है, उतना ही अधिक ज्ञान और सुख़ मिलते जाते हैं और अंततः इस से ही परमानंद या मोक्ष मिलता है |

अथर्ववेद १२.५.१,२

श्रम अर्थात् परम प्रयत्न और तप अर्थात् लक्ष्य की प्राप्ति के लिए चुनौतियों और बाधाओं को सहर्ष सहना,  ईश्वर प्रदत्त इन गुणों का त्याग मनुष्य कभी न करे | श्रम और तप से ही मनुष्य विश्व के महान रहस्यों को जान सकते हैं – ब्रह्म या परमेश्वर के ज्ञान को भी पा सकते हैं | मनुष्य श्रम और तप कर के अपनी संपत्ति को बढ़ाए और राष्ट्र को भी समृद्ध करे | श्रम और तप का ग्रहण कर के सत्य आचरण से मनुष्य उत्तम कीर्ति को प्राप्त करे |

अथर्ववेद १२.५.३

सभी मनुष्य अपनी वस्तुओं का ही उपयोग करें अन्यों की न लें | सभी  एक- दूसरे पर पूर्ण विश्वास करें | सत्य के बिना विश्वास का होना संभव नहीं है अत: सदा सत्य पर अडिग रहें | मनुष्य को सत्यविद्या, विद्वान और निर्दोषों की रक्षा के लिए पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए | मनुष्य यज्ञ से उत्तम लाभ प्राप्त करे – सभी के लिए हितकारी निः स्वार्थ कार्य, सत्य का ग्रहण तथा सत्य विद्या का प्रचार – प्रसार |  यज्ञ के लिए सदा पुरुषार्थ करते रहो, इस में आलस कभी मत करो |

आइए, अथर्ववेद  १२.५.७ – १०  के इन मंत्रों में वैदिक धर्म के सम्पूर्ण तत्वों को संक्षेप में देखें –

ओजश्च – सत्य पालन से युक्त पराक्रम |

तेजश्च – भय रहितता  |

सहश्च  – सुख़-दुःख, हानी -लाभ की परवाह न करते हुए, सत्य का पालन करना |

बलं च- विद्या, ब्रह्मचर्य, अनुशासन और व्यायाम आदि अच्छे नियमों केद्वारा बौद्धिक और शारीरिक क्षमता बढ़ाना  |

वाक् च – सत्य और मधुर बोलना |

इन्द्रियं च – पांच ज्ञानेन्द्रियां और पांच कर्मेन्द्रियां तथा मन को पाप कर्मों से रोक कर सदा सत्य और पुरुषार्थ में लगाना |

श्रीश्च – सभी प्रयत्नों से भ्रष्ट, दुर्बल, स्वाभिमान रहित स्वार्थी शासकों को निकाल कर सत्य, न्याय और सम्मान पर आधारित शक्ति संपन्न राष्ट्र का निर्माण करना |

धर्मश्च  – सदा ही सत्य का स्वीकार और असत्य का त्याग करना और इस  के द्वारा सभी जीवों का उपकार करना और सभी को आनंद देना |

ब्रह्म च – विद्या और ज्ञान के प्रचार के लियेविद्वन और श्रेष्ट पुरुषों को प्रोत्साहित करना |

क्षत्रं  च- राष्ट्र और समाज की रक्षा करने वाले शूर वीरों को बढ़ाना और दुष्टों को दण्ड देना |

विश्श्च  – अपने राष्ट्र के व्यापार- वाणिज्य को वैश्विक स्तर पर फैलाना, जिससे विश्व में अच्छे पदार्थों की बढ़त हो |

त्विषिश्च – केवल सत्य और उत्तम गुणों का प्रचार- प्रसार |

यशश्च – उत्तम कामों से विश्व में श्रेष्ट कीर्ति पाना |

वर्चश्च- सभी सत्य विद्याओं से युक्त उत्तम शिक्षा पद्धति की स्थापना करना |

द्रविणं च – मनुष्यों को पूर्वोक्त धर्म द्वारा सदा पुरुषार्थ करते हुए धन – संपत्ति प्राप्त करनी चाहिए, प्राप्त पदार्थों की यथावत रक्षा करनी चाहिए, रक्षित पदार्थों की बढ़ोतरी करनी चाहिए और विद्या तथा सदगुणों के प्रचार में धन – संपत्ति का यथावत उपयोग करना चाहिए |  

आयुश्च – सभी अच्छे नियमों के पालन से स्वास्थ्य और आयु को बढ़ाना |

रूपं च – शुद्ध वस्त्रों के धारण से शरीर के स्वरुप को अच्छा रखना |

नाम च -उत्तम कर्मों के आचरण से नाम की प्रसिद्धि करनी चाहिए जिससे मनुष्यों को भी श्रेष्ठ कर्म करने में उत्साह मिले |

कीर्तिश्च – सत्य ज्ञान के प्र्चारसे यश प्राप्त करना |

प्राणश्चपानश्च – श्वास प्रश्वास के नियंत्रण से स्वास्थ्य और आयु की वृद्धि करना |

चक्षुश्च श्रोत्रं च – ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा सदा सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना |

पयश्च रसश्च – दूध, जल, औषध आदि के यथावत सेवन से स्वास्थ्य और आयु की वृद्धि करना |

अन्न चा न्नाद्यं च – वैधक शास्त्रों की रीति से स्वास्थ्यप्रद उत्तम भोजन का सेवन करना |

ऋतं च – केवल सर्वोच्च परमात्मा की उपासना करना |

सत्यं च – मन, वचन और कर्म में समानता रखना |

इष्टं च – परम आनंद की प्राप्ति के लिए उपरोक्त श्रेष्ट कर्मों से एक मात्र ईश्वर की ही उपासना करना |

पूर्तं च – इष्ट की सिद्धी के लिए उचित कर्म करना |

प्रजा च – आम लोगों और नई पीढ़ी को विद्या और कर्म की सही शिक्षा देना |

पशवश्च – पशुओं की उचित देखभाल करना |

इन मंत्रों में प्रयुक्त अनेक चकार (च) का अर्थ है ‘और’ जो यह संकेत देता है कि सत्य और न्याय को बढ़ाने वाले
तथा असत्य  और दुःख  के नाशक अन्य भी जो गुण हैं, मनुष्य उन को भी अपनाए |

अन्य अनेक वेद मंत्र और वेदों पर आधारित ग्रंथ धर्म विषयक गहन विवेचन प्रस्तुत करते हैं |  धर्म के बारे में विस्तार से उत्तम जानकारी ऐतरेय आरण्यक -७.९,११,१०.८, .१०.६२,६३, मुण्डकोपनिषद ३.१.५,६ आदि में उपलब्ध हैं | पूर्व मीमांसा १.१.२- के अनुसार ईश्वर ने वेदों में मनुष्यों के लिए जिसे करने की आज्ञा दी है, वही ‘ धर्म’ है |

(स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा लिखित  ‘ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ‘ के वेदोक्तधर्मविषय में इसे विस्तार से जानें | वेदों को समझने के लिए ‘ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ‘ का अध्ययन अति आवश्यक है | )

वैशेषिक दर्शन धर्म की व्याख्या करते हुए कहता है कि जिस आचरण से संसार में उत्तम सुख़ और निः श्रेयस अर्थात् मोक्ष सुख़ की प्राप्ति होती है, उसी का नाम धर्म है | 

इससे पता चलता है कि सभी मनुष्यों के लिए धर्म एक ही है, दो नहीं | अत: सभी को इसी एक सत्य धर्म को अपनाना चाहिए |

This translation in Hindi is contributed by sister Mridula. For original post,  visit Religion of Vedas. 

 

Agniveer
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Vedic Dharma, honest history, genuine human rights, impactful life hacks, honest social change, fight against terror, and sincere humanism.

7 COMMENTS

  1. यही समय हॆ कि विभिन्न धर्मों की पहचान समाप्त हो जाए । पूरे विश्व का एक ही धर्म हो जिसकी जडे वॆदिक अनुशासन में स्थित होँ।

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