मैकाले की कुटिल शिक्षा नीति के कारण ही अनेक भारतीय विद्वान भी यह मानते हैं कि वेद में कथित आर्यों और दस्युओं के संघर्ष का वर्णन है। आर्य लोग मध्य एशिया से आए हैं। भारत के मूल निवासी दास या दस्यु थे, जिन्हें आर्यों ने आकर लूटा, खदेडा, पराजित कर दास बनाया, कठोर व्यवहार कर उनसे नीचा काम करवाया और सदा के लिए भारतवर्ष पर आधिपत्य स्थापित कर लिया।
वेदों के बारे में पाश्चात्य विद्वानों ने यह लाल बुझक्कड़ वाली कल्पना इस देश की वैदिक विचारधारा, सभ्यता, संस्कृति को नष्ट कर पाश्चात्य पद्धतियों के प्रचार–प्रसार तथा यहां साम्राज्य स्थापित करने के लिए ही गढ़ी थी और इस देश का सत्यानाश करने के षड्यंत्र में शामिल उनके पुछल्ले साम्यवादी भी यही राग अलापते रहते हैं कि आर्यों ने अपनी महत्ता को जन्मगत भेदभाव के आधार पर प्रस्थापित किया।
भारतवर्ष को विभाजित करनेवाले इन्हीं विचारों के कारण आज स्वयं को द्रविड़ तथा दलित कहलाने वाले भाई–बहन जो अपने आप को अनार्य (जो आर्य नहीं है) मानते हैं – उनके मन में वेदों के प्रति तथा उन्हें मानने वालों के प्रति घृणा और द्वेष का ज़हर भर गया है – परिणाम देश भुगत ही रहा है।
उनकी इस निराधार कल्पना का खंडन कई विद्वान कर चुके हैं। यहां तक कि डॉक्टर अम्बेडकर भी उनके इन विचारों से सहमत नहीं थे।
दस्यु और वेद मन्त्र
क्योंकि इस मिथ्या विवाद का आधार वेदों को बताया जा रहा है तो अब हम वेदों से ही आर्य और दस्यु के वास्तविक अर्थ जानेंगे। यही इस अध्याय का मूल उद्देश्य है।
आरोप:
वेदों में कई स्थानों पर आर्य और दस्यु का वर्णन आया है। कई मंत्र दस्यु के विनाश तथा आर्यों के रक्षा की प्रार्थना करते हैं। कुछ मंत्र तो यह भी कहते हैं कि जो स्त्रियां भी दस्यु पाई जाएं तो उन्हें भी नहीं बख्शना चाहिए। इसलिए इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि वेद में दस्युओं पर आर्यों के अत्यंत घातक आक्रमण का वर्णन है।
समाधान:
ऋग्वेद में दस्यु से संबंधित ८५ मंत्र हैं। जिन में से कई दास के संदर्भ में भी हैं – जो दस्यु का ही पर्यायवाची है। आइए उन में से कुछ के अर्थ देखें:
ऋग्वेद १।३३।४
हे शूरवीर राजन्! विविध शक्तियों से युक्त आप एकाकी विचरण करते हुए अपने शक्तिशाली अस्त्र से धनिक दस्यु (अपराधी) और सनक: (अधर्म से दूसरों के पदार्थ छीनने वाले) का वध कीजिये। आपके अस्त्र से वे मृत्यु को प्राप्त हों। यह सनक: शुभ कर्मों से रहित हैं।
यहां दस्यु के लिए ‘अयज्व’ विशेषण आया है अर्थात् जो शुभ कर्मों और संकल्पों से रहित हो और ऐसा व्यक्ति पाप कर्म करने वाला अपराधी ही होता है। अतः यहां राजा को प्रजा की रक्षा के लिए ऐसे लोगों का वध करने के लिए कहा गया है।
सायण ने इस में दस्यु का अर्थ “चोर” किया है। दस्यु का मूल ‘दस’ धातु है जिसका अर्थ होता है – ‘उपक्क्षया’ अर्थात् जो नाश करे। अतः दस्यु कोई अलग जाति या नस्ल नहीं है, बल्कि दस्यु का अर्थ विनाशकारी और अपराधी प्रवृत्ति के लोगों से है।
ऋग्वेद १।३३।५
जो दस्यु (दुष्ट जन) शुभ कर्मों से रहित हैं परंतु शुभ करने वालों के साथ द्वेष रखने वाले हैं, आपकी रक्षा के प्रताप से वे भाग जाते हैं। हे पराक्रमी राजेन्द्र! आपने सभी स्थानों से ‘अव्रत’ (शुभ कर्म रहित) जनों को निकाल बाहर किया है।
इस मंत्र में दस्यु के दो विशेषण आए हैं – ‘अयज्व’ अर्थात् शुभ कर्म और संकल्पों से रहित, और ‘अव्रत‘ अर्थात् नियम न पलनेवाला तथा अनाचारी।
स्पष्ट है कि दस्यु शब्द अपराधियों के लिए ही आया है और सभ्य समाज में ऐसे लोगों को दिए जानेवाले दंड का ही विधान वेद करते हैं।
ऋग्वेद १।३३।७
हे वीर राजन्! इन रोते हुए या हँसते हुए दस्युओं को इस लोक से बहुत दूर भगा दीजिये और उन्हें नष्ट कर दीजिये तथा जो शुभ कर्मों से युक्त तथा ईश्वर का गुण गाने वाले मनुष्य हैं उनकी रक्षा कीजिये।
ऋग्वेद १।५१।५
हे राजेन्द्र! आप अपनी दक्षता से छल कपट से युक्त ‘अयज्वा’ ‘अव्रती’ दस्युयों को कम्पायमान करें, जो प्रत्येक वस्तु का उपभोग केवल स्वयं के लिए ही करते हैं, उन दुष्टों को दूर करें। हे मनुष्यों के रक्षक! आप उपद्रव, अशांति फैलानेवाले दस्युओं के नगर को नष्ट करें और सत्यवादी सरल प्रकृति जनों की रक्षा करें।
इस मंत्र में दान-परोपकार से रहित, सब कुछ स्वयं पर ही व्यय करने वाले को दस्यु कहा है।
“कौषीतकी ब्राह्मण” में ऐसे लोगों को “असुर” कहा गया है। जो दान न करे वह असुर है, अतः असुर और दास दोनों का तात्पर्य दुष्ट अपराधी जनों से है।
ऋग्वेद १।५१।६
हे वीर राजन्! आप प्रजाओं का शोषण करने वालों की हत्या और ऋषियों की रक्षा करते हैं और दूसरों की सहायता करने वालों के कल्याण के लिए आप महादुष्ट जनों को भी कुचल देते हैं। सदा से ही आप दस्यु (दुष्ट जनों) के हनन के लिए ही उत्पन्न होते हैं।
यहां दस्यु के लिए ‘शुष्ण’ का प्रयोग है – जिसका अर्थ है शोषण करना – दु:ख देना।
ऋग्वेद १।५१।७
हे परमेश्वर! आप आर्य और दस्यु को अच्छे प्रकार जानते हैं। शुभ कर्म करने वालों के लिए आप ‘अव्रती’ (शुभ कर्म के विरोधी) दस्युओं को नष्ट करो। हे भगवन्! मैं सभी उत्तम कर्मों के पालन में आपकी प्रेरणा सदा चाहता हूं।
ऋग्वेद १।५१।९
हे राजेन्द्र! आप नियमों का पालन करने वाले तथा शुभ कर्म करने वाले के कल्याण हेतु व्रत रहित दस्यु का संहार करते हो। स्तुति करने वालों के साथ द्वेष रखने वाले, अनाचारी, ईश्वर के गुणगान से रहित लोगों को वश में रखते हो।
ऋग्वेद १।११७।२१
हे शूरवीर सेनाधीशों! आप उत्तम जनों की रक्षा तथा दस्यु का संहार करो। इस मंत्र में रचनात्मक कार्यों में संलग्न मनुष्यों को आर्य कहा गया है।
ऋग्वेद १।१३०।८
हे परम ऐश्वर्यवान् राजा! आप तीन प्रकार के – साधारण, स्पर्धा के लिए और सुख की वृद्धि के लिए किए जाने वाले संग्रामों में यजमानम् आर्यम् (उत्तम गुण, कर्म स्वभाव के लोग) का रक्षण करें और अव्रतान् (नियम को न पालनेवाले, दुष्ट आचरण वाले), जिनका अंत: करण काला हो गया है, हिंसा में रत या हिंसा की इच्छा करने वाले को नष्ट कर दें।
यहां ‘कृष्ण त्वक्’ शब्द से कालि त्वचा वाले लोगों की कल्पना कर ली गई है। जब की यहाँ ‘कृष्ण त्वक्’ का अर्थ अंत:करण का दुष्ट भाव है। साथ ही यहां ‘ततृषाणाम्’ और ‘अर्शसानम्’ भी आए हैं, जिनका अर्थ है – हिंसा करना चाहना और हिंसा में रत। इस के विरुद्ध आर्य यहां श्रेष्ठ और परोपकारी मनुष्यों के लिए आया है।
इस से स्पष्ट होता है कि आर्य और दस्यु शब्द गुण वाचक हैं, जाति वाचक नहीं हैं।
ऋग्वेद ३।३४।९
यह मंत्र भी दस्यु का नाश और आर्य की रक्षा का अर्थ रखता है। यहां आर्य के लिए “वर्ण” शब्द आया है, “वर्ण अर्थात् स्वीकार किए जाने योग्य”, इसलिए आर्य वर्ण अर्थात् स्वीकार करने योग्य उत्तम व्यक्ति।
ऋग्वेद ४।२।२
मैं आर्य को भूमि देता हूं, दानशील मनुष्य को वर्षा देता हूं और सब मनुष्यों के लिए अन्य संपदा देता हूं। यहां आर्य “दान शील मनुष्यों” के विशेषण रूप में आया है।
ऋग्वेद के अन्य मंत्र हैं –
• ऋग्वेद ४।३०।१८
• ऋग्वेद ५।३४।६
• ऋग्वेद ६।१८।३
• ऋग्वेद ६।२२।१०
• ऋग्वेद ६।२२।१०
• ऋग्वेद ६।२५।२
• ऋग्वेद ६।३३।३
• ऋग्वेद ६।६०।६
• ऋग्वेद ७।५।७
• ऋग्वेद ७।१८।७
• ऋग्वेद ८।२४।२७
• ऋग्वेद ८।१०३।१
• ऋग्वेद १०।४३।४
• ऋग्वेद १०।४०।३
• ऋग्वेद १०।६९।६
इन मंत्रों में भी आर्य और दस्यु – दास शब्दों के विशेषणों से पता चलता है कि अपने गुण, कर्म और स्वभाव के कारण ही मनुष्य आर्य और दस्यु नाम से पुकारे जाते हैं। अतः उत्तम स्वभाव वाले, शांतिप्रिय, परोपकारी गुणों को अपनाने वाले आर्य तथा अनाचारी और अपराधी प्रवृत्ति वाले दस्यु हैं।
ऋग्वेद ६।२२।१० दास को भी आर्य बनाने की शिक्षा देता है। साफ़ है कि आर्य और दस्यु का अंतर कर्मों के कारण है जाति के कारण नहीं।
ऋग्वेद ६।६०।६ में कहा गया है, यदि आर्य (विद्वान श्रेष्ठ लोग) भी अपराधी प्रवृत्ति के हो जाएं तो उनका भी संहार करो। यही भावना ऋग्वेद १०।६९।६ और १०।८३।१ में व्यक्त की गई है। अतः आर्य कोई सदैव बने रहने वाला विशेषण नहीं है। आर्य गुणवाचक शब्द है। श्रेष्ठ गुणों को धारण करनेवाले आर्य कहलाते हैं। अगर वह अपने गुणों से विमुख हो जाएं – अपराधिक प्रवृत्तियों में लिप्त हो जाएं, तो वह भी दस्यु की तरह ही दंड के पात्र हैं।
अथर्ववेद ५।११।३ वर्णन करता है कि ईश्वर के नियमों को आर्य या दास कोई भंग नहीं कर सकता।
शंका:
इस मंत्र में आर्य और दास शब्दों से दो अलग जातियां होने का संदेह होता है। यदि दास का अर्थ अपराधी है तो ईश्वर अपराधियों को अपराध करने ही क्यों देता है? जबकि वो स्वयं कह रहा है कि मेरे नियम कोई नहीं तोड़ सकता?
समाधान:
ईश्वर के नियमानुसार मनुष्य का आत्मा कर्म करने में स्वतंत्र है। वह अपने लिए भले या बुरे दोनों प्रकार के कर्मों में से चुनाव कर सकता है। लेकिन कर्म का फ़ल उसके हाथ में नहीं है। कर्मफल प्राप्त करने में जीवात्मा ईश्वर के अधीन है। यही इस मंत्र में दर्शाया गया है।
इसी सूक्त के अगले दो मंत्रों अथर्ववेद ५।११।४ और अथर्ववेद ५।११।६ में कहा गया है कि बुरे लोग भी ईश्वर के अपरिवर्तनीय नियमों से डरते हैं, परंतु वे मनुष्यों से भयभीत नहीं होते और उपद्रव करते रहते हैं। इसलिए यहां ईश्वर से प्रार्थना है कि बदमाश और अपराधियों की नहीं चले, वे दबे रहें और विद्वानों को बढ़ावा मिले।
यहां बदमाश अपराधियों के लिए दास या दस्यु ही नहीं आए बल्कि कई मंत्रों में ज्ञान, तपस्या और शुभ कर्मों से द्वेष करने वालों के लिए ‘ब्रह्मद्विष’ शब्द भी आया है।
ऋग्वेद के ३।३०।१७ तथा ७।१०४।२ मंत्र ब्रह्मद्विष, नरभक्षक, भयंकर और कुटिल लोगों को युद्ध के द्वारा वश में रखने को कहते हैं। अब जैसे ब्रह्मद्विष, नरभक्षक, भयंकर और कुटिल कोई अलग जाति नहीं है, मनुष्यों में ही इन दुर्गुणों को अपनाने वालों को कहते हैं। उसी तरह अपराधी प्रवृत्ति के लोगों को दास, दस्यु और ब्रह्मद्विष कहते हैं – यह अलग कोई जाति या नस्ल नहीं है।
ऋग्वेद ७।८३।७ इसे और स्पष्ट करता हुआ कहता है कि दस अपराधी प्रवृत्ति के राजा मिलकर भी एक सदाचारी राजा को नहीं हरा सकते। क्योंकि उत्तम मनुष्यों की प्रार्थनाएं हमेशा पूर्ण होती हैं और उन्हें बहुत से बलवान जनों का सहयोग और साधन भी मिलते हैं।
यहां अपराधी प्रवृत्ति के लिए ‘अयज्व‘ आया है जो कि ऊपर के कुछ मंत्रों में दस्यु के लिए भी आ चुका है और कथित बुद्धिवादी पाश्चात्यों ने इस में दस राजाओं का युद्ध दिखाने का प्रयास किया है!
सारांश
अंत में ऋग्वेद के मंत्र ७।१०४।१२ से हम – आर्य और दास या दस्यु या अव्रत या अयज्व के संघर्ष को सार रूप में समझें –
“विद्वान यह जानें कि सत् (सत्य) और असत् (असत्य) परस्पर संघर्ष करते रहते हैं। सत्-असत् को और असत् – सत् को दबाना चाहता है। परंतु इन दोनों में जो सत् है और ऋत (शाश्वत सत्य) है, उसी की ईश्वर सदा रक्षा करता है और असत् का हनन करता है।”
आइए, हम भी झूठा अभिमान त्याग कर, सत् और ऋत के मार्ग पर चलें। अगले अध्याय में हम “दास” शब्द पर चर्चा करेंगे और यह देखेंगे कि दास का शूद्र से कोई लेना-देना नहीं है बल्कि दास – दस्यु का ही पर्यायवाची है।
अनुवादक: आर्यबाला
This article is also available in English at http://agniveer.com/839/
[…] 2The reality of caste system – Next Move This article is also available in Hindi at http://agniveer.com/5528/vedas-and-dasyu-hi/A predominant theme that pervades the Macaulay brand of education is about Vedas being primarily a […]
श्रीमान अग्निवीर जी आपका यह प्रयास बहुत प्रशंसनीय है ।यह ज्ञानगंगा अविरल बहती रहे , ईश्वर से यही प्रार्थना है ।
Aaj aapki baato se bahut gayaan mila h…..jaise ki hamara itehaas sabko unferwear me dikhaya rha hai….magar aapne sab ko nanga kar ke sach dikhaya hai, aapko mera pardnaam
[…] This article is also available in Hindi at http://agniveer.com/vedas-and-dasyu-hi/ […]