आम बोल-चाल में दास और शूद्र शब्द इस तरह घुल-मिल गए हैं कि दास का अर्थ शूद्र ही समझ लिया गया है और जो निर्देश वेद में दास के लिए है, उसे शूद्र के लिए भी समझ लिया गया है।
वेद मन्त्रों में दास
आइए, कुछ वेद मन्त्रों में ‘दास’ शब्द के विभिन्न रूपों को और उनके वास्तविक अर्थ को देखें –
‘दास’ शब्द क्रियापद के रूप में
ऋग्वेद ७।१।२१
हमारे वीर योद्धा, न दास बनें और न नष्ट हों।
ऋग्वेद ६।५।४
जो छिप कर हमको (अभि + दासत्) नष्ट करना चाहता है। हे देव! उसे आप नष्ट करें। यहां (अभि + दासत्) अर्थात् हिंसा करता है, दुःख देता है।
ऋग्वेद ७।१०४।७
जो द्वेष से हमको (अभिदासति) नष्ट करना चाहता है, उसका कभी कल्याण न हो।
ऋग्वेद १०।९७।२३
हमारा वह शत्रु नष्ट हो, जो हमको ( अभिदासति) नष्ट करना चाहता है।
इन सभी मंत्रो में ‘दास’ विनाश का प्रतीक है।
‘दस’ धातु
कई मन्त्रों में दास का वह रूप जिसका मूल ‘दस’ शब्द है – उस का प्रयोग हुआ है।
ऋग्वेद १०।११७।२
दानशील मनुष्य का धन (उप+ दस्यति) नष्ट नहीं होता है।
ऋग्वेद ५।५४।७
परमेश्वर जिसे प्रेरणा करते हैं, ऐसे मनुष्य का धन और समृद्धि कभी (उपदस्यन्ति ) क्षीण नहीं होते।
‘दस’ (धातु) अर्थात् नाश या नष्ट होना। इससे यह स्पष्ट होता है कि दास का अर्थ विनाश से संबंधित है न कि दास का अर्थ कोई जाति या नस्ल है।
‘दास’ शब्द के प्रयोग
अब कुछ ऐसे मन्त्र देखते है जिनमें सीधे ही दास शब्द का प्रयोग हुआ है।
ऋग्वेद २।१२।४
दास या विनाशकारी मनुष्य का दमन करो।
ऋग्वेद ५।३४।६
आर्य लोग दास या विनाशकारी जनों को अपने वश में रखें।
ऋग्वेद ६।२२६।५
शांति को नष्ट करनेवाले जो दास हैं, उनका नाश हो।
इस मंत्र में ‘शम्बर’ दास के विशेषण के रूप में आया है, जो ‘शम्’ (शांति) का विरोधी है।
ऋग्वेद ७।१९।२
दास, शुष्णम् (धन लूटने वाले) और कुयवम् (आतंककारी) को पूर्णतया वश में करो।
ऋग्वेद १०।४९।६
पापस्वरुप दास सदा नष्ट हों।
ऋग्वेद १०।१९।७
जो मारने योग्य दास है, उस का नाश करो।
ऋग्वेद के मंत्र ४।३०।१५, ४।३०।२१ और ३।१२।६ भी दास के संहार के लिए कहते हैं।
सारांश
इन सभी उदाहरणों से समझा जा सकता है कि वेद में हिंसक, दुष्ट, हानि पहुँचाने वाला और विध्वंस करने वाला मनुष्य ही दास है, चाहे किसी भी समुदाय का हो। अतः सिद्ध है कि वेद में दास शब्द किसी भिन्न नस्ल या वंश का अर्थ नहीं रखता।
पहले लेख में हमने देखा कि विध्वंसकारी और अपराधी प्रवृत्ति वाले व्यक्ति को दस्यु कहते हैं। इस तरह दास – दस्यु का ही पर्यायवाची है। आजकल के अतिघातक विध्वंसकारी आतंकी इसी श्रेणी में आते हैं जैसे – कसाब, ओसामा बिन लादेन, याकूब और बगदादी इत्यादि।
आर्य (अच्छे कार्य करने वाले) और दास या दस्यु (बुरे कार्य करने वाले) के स्वभाव में अंतर है। दास या दस्यु लोग समाज और राष्ट्र के नाशक होते हैं। अतः वेद दास या दस्यु के वध का स्पष्ट निर्देश करते हैं। इसमें किसी जातिविशेष के नाश का नहीं, बल्कि समाज और राष्ट्र की रक्षा के लिए सब दुष्टों के ही नाश का भाव है।
सम्पूर्ण वेदों में ‘शूद्र’ शब्द कहीं भी दास के संदर्भ में प्रयुक्त नहीं हुआ है। वेदों में शूद्र आर्य ही है। ऋग्वेद के ३६ मंत्र ‘आर्य’ के विभिन्न रूपों को समाहित करते हुए श्रेष्ठ और सदाचारी मनुष्यों का ही अर्थ रखते हैं। आर्यों में जो परोपकारी लोग सेवा कार्य से अपनी आजीविका चलाते हैं – वे शूद्र हैं और वेदों में शूद्र का स्थान अत्यंत सम्मानजनक है जैसा हमने ‘वेद और शूद्र’ अध्याय में देखा। यह बहुत ही खेद की बात है कि कालांतर में हम वेदों के असली सन्देश को भुला बैठे और शूद्र और दास के अर्थों को हमने पूरी तरह से अदल-बदल कर रख दिया। आज शूद्र एक “आपत्तिजनक” शब्द है और दास शब्द “दीनता” को दर्शाता है। यह वेदों से पूर्णतः विपरीत है।
यह उसी तरह हुआ होगा, जैसे यूरोपियन लोग सजा के तौर पर अपराधियों को आस्ट्रेलिया भेजा करते थे – जो बाद में एक देश बन गया। ऐसे ही, जब दासों या अपराधी प्रवृत्ति के लोगों को पकड़ा जाता था, तब सुधार योग्य दासों को कई काम सिखाए जाते थे, जैसे कि आज भी जेल में कैदियों को काम सिखाए जाते हैं और श्रम कराया जाता है। इसी तरह इन दासों को भी सेवा कार्यों की जिम्मेदारी दी जाती थी। समय के चलते वेदों के मूल सन्देश को हम भुला बैठे और इन दासों की अगली पीढ़ियों को भी ‘दास’ ही कहा जाने लगा और दास माने ‘सेवक’ अर्थ आरूढ़ हो गया। इस तरह वेदों की धारणाओं से पूर्णतः भिन्न शूद्र और दास आपस में पर्यायवाची बन गए। ऐसे ही आर्यों ने स्वयं को हिन्दू कहलाना शुरू कर दिया जिसका किसी भी शास्त्र में कोई आधार नहीं है।
विश्व के सभी श्रेष्ठ जन, शूद्रों सहित, आर्य हैं!
Original English article: vedas and daas